जारी था एक खेल कहने-सुनने का

वह कहता था,
वह सुनती थी,
जारी था एक खेल
कहने-सुनने का।

खेल में थी दो पर्चियाँ।
एक में लिखा था ‘कहो’,
एक में लिखा था ‘सुनो’।
अब यह नियति थी
या महज़ संयोग?
उसके हाथ लगती रही
वही पर्ची
जिस पर लिखा था ‘सुनो’।

वह सुनती रही।
उसने सुने आदेश।
उसने सुने उपदेश।
बन्दिशें उसके लिए थीं।
उसके लिए थीं वर्जनाएँ।
वह जानती थी,
'कहना-सुनना'
नहीं हैं केवल क्रियाएं।

राजा ने कहा, 'ज़हर पियो'
वह मीरा हो गई।
ऋषि ने कहा, 'पत्थर बनो'
वह अहिल्या हो गई।
प्रभु ने कहा, 'निकल जाओ'
वह सीता हो गई।
चिता से निकली चीख,
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी।
वह सती हो गई।

घुटती रही उसकी फरियाद,
अटके रहे शब्द,
सिले रहे होंठ,
रुन्धा रहा गला।
उसके हाथ कभी नहीं लगी
वह पर्ची,
जिस पर लिखा था, ‘ कहो ’।

-Amrita Pritam





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Comments

  1. भाई वेद प्रकाश जी , यह कविता अमृता प्रीतम की नहीं बल्कि मेरी यानी शरद कोकास की है जो वर्ष 1995 में वागर्थ पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है

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  2. आपको यह कविता कहाँ से प्राप्त हुई ? कृपया मेरे नंबर 8871665060 पर मुझसे बात करें इस सम्बन्ध में

    ReplyDelete
  3. आपने जवाब नही दिया ?

    ReplyDelete

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